कर्तव्य निष्ठा से संवरता बचपन
पन्ना 29 मार्च 18/शहरी वातावरण से दूर विन्ध्य की सुरम्य वादियों में पन्ना जिले की जनपद पंचायत पन्ना के छोटे से ग्राम ’तारा’ में संचालित है एक शासकीय प्राथमिक शाला, जो आज जिले की एक आदर्श पाठशाला के रूप में सुस्थापित है।
कहना न होगा कि पूर्व में यह एक पहचान विहीन, अभिभावक एवं विद्यार्थियों द्वारा उपेक्षित सामान्य सी पाठशाला थी। पर आज यह पन्ना जिले की एक चर्चित शाला है। यदि यह कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि तारा गांव में स्थित होने के बाद भी यह तारा गांव की पाठशाला के रूप में नहीं बल्कि ’तारा’ गंाव इस पाठशाला के कारण पहचाना जाने लगा है। एक सामान्य साधनहीन शाला से जिले की रेखांकित शाला बनने तक की कहानी मूलतः दो शिक्षकों सुश्री वर्षा वर्मा एवं श्री अमित परमार के आसपास घूमती है।
वह जुलाई 2015 का समय था जहां से शाला ने अपने उत्थान की इबारत लिखना शुरू की। हुआ कुछ तरह कि युक्तियुक्तकरण नीति के अन्तर्गत ग्राम झरकुआ के शासकीय हाईस्कूल के अध्यापक श्री परमार एवं अध्यापिका सुश्री वर्मा का स्थानान्तरण ग्राम तारा की शासकीय प्राथमिक शाला में हो गया। पदभार संभालते ही शिक्षकों ने इस वास्तविकता को जाना कि शासकीय अभिलेख में दर्ज इस शाला की पहचान अपने ग्राम तारा तक में नहीं है। इस गांव के जो विद्यार्थी शाला में पढने आ रहे हैं उनके पास गणवेश तो दूर पूरे वस्त्र तक नहीं हंै। वास्तविकता तो यह थी कि आधे-अधूरे, फटे पुराने कपड़ों में शाला आने वाले विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने नहीं बल्कि मध्यान्ह भोजन के लालच में शाला आते थे। शिक्षकों ने यह भी महसूस किया कि जिस तरह शाला संचालित हो रही है, वह नाम मात्र की शाला है और शासन का उद्देश्य नाम मात्र की पाठशाला का संचालन नहीं हैं; अपितु बच्चों को शिक्षित, संस्कारित और आत्मनिर्भर करना है। ताकि सर्वजन हितकारी उपक्रमों में उनकी भी सहभागिता हो।
स्थितियां प्रतिकूल थीं। शिक्षकों के सामने एक कठिन चुनौती थी। उन्होंने महसूस किया कि हम शिक्षक हैं सरकार ने हमारी नियुक्ति स-उद्देश्य की है। विद्यार्थी हमें गुरूजी कहते और मानते हैं। हम स्वयं विद्यार्थियों को चुनौती का सामना करने के लिए प्रेरित करते हैं। अतः हमें भी शाला को शाला बनाने की चुनौती, शाला को शासन के उद्देश्य के अनुरूप चलाने की चुनौती स्वीकार करना होगी। इसी विचार मंथन में शिक्षकों को अपने कर्तव्य कर्म का बोध हुआ और वे अपने दायित्व निर्वहन के लिए अभिपे्ररित हो गए। उन्हांेने शाला के उन्नयन के लिए एक कार्ययोजना बनाई और उस पर क्रियान्वयन करना प्रारंभ कर दिया। कार्ययोजना के केन्द्र में उन्होंने इस बिन्दु को रखा कि शाला आने में बच्चों के मन में उमंग हो, रूचि हो तथा अभिभावक की भी बच्चों को शाला भेजने में सकारात्मक सहभागिता हो।
शिक्षकों ने अपनी कार्ययोजना से अभिभावकों को अवगत कराया। परस्पर सहमति से उन्होंने सबसे पहले बच्चों को शाला आने में रूझान उत्पन्न करने के लिए उपहार योजना शुरू की। सभी विद्यार्थियों को गणवेश दिए, शीतकाल के लिए ऊनी कपड़े दिए। गणवेश और ऊनी वस्त्र पाकर विद्यार्थियों के चेहरे पर खुशी के भाव आ गए और वह शाला ने में रूचि लेने लगे। शाला आने के बाद विद्यार्थी शाला आने में रूकें, इसके लिए शिक्षकों ने शाला को खेल के मैदान में भी बदला और खेल-खेल में पढ़ाई को अंजाम देने लगे। खेल के मैदान के साथ कक्षाओं में भी बच्चों का मन लगे इसके लिए टाट-पट्टी की व्यवस्था की गयी, पुराने फर्नीचर को नया रूप दिया गया। विद्यार्थियों को पढ़ने और लिखने में सुविधा हो इसके लिए पुराने फर्नीचर से छोटी-छोटी डेस्क बनाई गयी। अध्ययन कक्ष की दीवारों पर गिनती, वर्णमाला और प्रेरक चित्र बनाए गए, नृत्य और गीत को पढाई में शामिल किया गया। विद्यार्थी स्वप्रेरणा से लेखन में रूचि लें, इस उद्देश्य से दीवारों पर छोटे-छोटे ग्रीन बोर्ड बनवाए गए। विद्या की देवी माॅं सरस्वती का मंदिर स्थापित कर प्रतिदिन प्रार्थना से शाला की शुरूआत प्रारंभ की गयी। शिक्षकों और अभिभावकों की संयुक्त पहल रंग लायी। सकारात्मक परिणाम सामने आने लगे। साफ, स्वच्छ शिक्षा कक्ष और शाला प्रांगण, शाला प्रांगण में लहराते फूलों के पौधे, टाट-पट्टी, ग्रीन बोर्ड और प्यार भरा मार्गदर्शन पाकर जहां विद्यार्थी स्व-अनुशासन से पढ़ने में रूचि लेने लगे वहीं दूसरी ओर शाला का वातावरण भी शिक्षामय हो गया।
प्रगतिगामी पग यहीं पर नही रूके, दूसरा सोपान चालू हुआ। विद्यार्थियों का युक्तियुक्त तरीके से सामाजीकरण हो, वह परस्पर सीखें इस उद्देश्य से समूह में पढाई कराना शुरू की। दल बनाकर सामान्य ज्ञान और अंग्रेजी विषय पर प्रश्नोत्तरी करवाना शुरू किया गया। प्रतियोगी एवं स्वस्थ्य वातावरण देने के लिए विभिन्न विषयों पर समूह चर्चा करवाना शुरू किया। विद्यार्थी कल्पनाशील और विचारवान बने इसके लिए ग्रीन बोर्ड के साथ विभिन्न चित्र अंकित कर विद्यार्थी को उन चित्रों को आधार बनाकर कविता और कहानी लिखने के लिए प्रेरित करना शुरू किया। विद्यार्थीगण आत्म विश्वासी हो, वह अपने विचार सबके सामने रख सकें, दूसरे के विचारों को धैर्यपूर्वक सुन सकें, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बाल सभा का गठन किया गया। शाला में एक पुस्तकालय की स्थापना की गयी और उसके माध्यम से प्रेरक साहित्य उपलब्ध कराया गया। बाल सभा के माध्यम से राष्ट्रीय पर्व और अन्य प्रसंगों पर सभा आयोजित करना प्रारंभ की गयी। बाल सभा का संचालन भी बच्चों से कराना शुरू किया। परिणाम हुआ कि हीरो की नगरी पन्ना में ग्राम तारा की शाला भी हीरो के समान चमकने लगी।
शाला की प्रगति की दस्तां से रूबरू होने के लिए एक नजर पूर्व पर डालना भी उचित है। शैक्षणिक सत्र 2015-16 में छात्र संख्या केवल 19 थी एवं 5 छात्र नवप्रवेशी मिले। इस तरह कुल छात्र संख्या 24 हो गयी जिनमें से 9 अनुसूचित जाति एवं 4 अनुसूचित जनजाति के छात्र थे। उसके बाद 3 छात्रों के उत्तीर्ण होकर विद्यालय छोडने के बाद वर्ष 2016-17 में 21 छात्र संख्या बची। इसी वर्ष 18 नये छात्रों ने प्रवेश लिया जिनमें से 9 छात्र निजी विद्यालयों से आए थे। अब छात्रों की संख्या 39 हो गयी थी। इनमें से 20 अनुसूचित जाति एवं 4 अनुसूचित जनजाति के छात्र थे। शैक्षणिक सत्र 2017-18 में 12 छात्र उत्तीर्ण होकर बाहर होने के बाद छात्र संख्या 27 हो गयी थी। इस वर्ष 19 नवप्रवेशी बच्चों ने प्रवेश लिया। जिनमें से 4 छात्र निजी विद्यालयों से आए। इस तरह वर्तमान में कुल छात्र संख्या 46 है। जिनमें से 15 अनुसूचित जाति के छात्र है।
उपरोक्त आंकडे स्वयं इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि कर्तव्य निष्ठा से इस शाला में बचपन संवर रहा है। निःसंदेह यह अनूठा स्कूल है। इसकी किसी स्कूल से कोई तुलना नहीं है। यह दो शिक्षकों के सद्प्रयास की सफलता की कहानी है, जिससे पाठशाला की छवि इतनी निखर गयी कि सम्पन्न घरों के बच्चे भी प्रायवेट स्कूल छोड़ कर इस शाला में प्रवेश ले रहे हैं। सच भी यही है कि निरंतर और सतत प्रयास ही सफलता के मूल आधार है।
समाचार क्रमांक 314-900
कहना न होगा कि पूर्व में यह एक पहचान विहीन, अभिभावक एवं विद्यार्थियों द्वारा उपेक्षित सामान्य सी पाठशाला थी। पर आज यह पन्ना जिले की एक चर्चित शाला है। यदि यह कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि तारा गांव में स्थित होने के बाद भी यह तारा गांव की पाठशाला के रूप में नहीं बल्कि ’तारा’ गंाव इस पाठशाला के कारण पहचाना जाने लगा है। एक सामान्य साधनहीन शाला से जिले की रेखांकित शाला बनने तक की कहानी मूलतः दो शिक्षकों सुश्री वर्षा वर्मा एवं श्री अमित परमार के आसपास घूमती है।
वह जुलाई 2015 का समय था जहां से शाला ने अपने उत्थान की इबारत लिखना शुरू की। हुआ कुछ तरह कि युक्तियुक्तकरण नीति के अन्तर्गत ग्राम झरकुआ के शासकीय हाईस्कूल के अध्यापक श्री परमार एवं अध्यापिका सुश्री वर्मा का स्थानान्तरण ग्राम तारा की शासकीय प्राथमिक शाला में हो गया। पदभार संभालते ही शिक्षकों ने इस वास्तविकता को जाना कि शासकीय अभिलेख में दर्ज इस शाला की पहचान अपने ग्राम तारा तक में नहीं है। इस गांव के जो विद्यार्थी शाला में पढने आ रहे हैं उनके पास गणवेश तो दूर पूरे वस्त्र तक नहीं हंै। वास्तविकता तो यह थी कि आधे-अधूरे, फटे पुराने कपड़ों में शाला आने वाले विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने नहीं बल्कि मध्यान्ह भोजन के लालच में शाला आते थे। शिक्षकों ने यह भी महसूस किया कि जिस तरह शाला संचालित हो रही है, वह नाम मात्र की शाला है और शासन का उद्देश्य नाम मात्र की पाठशाला का संचालन नहीं हैं; अपितु बच्चों को शिक्षित, संस्कारित और आत्मनिर्भर करना है। ताकि सर्वजन हितकारी उपक्रमों में उनकी भी सहभागिता हो।
स्थितियां प्रतिकूल थीं। शिक्षकों के सामने एक कठिन चुनौती थी। उन्होंने महसूस किया कि हम शिक्षक हैं सरकार ने हमारी नियुक्ति स-उद्देश्य की है। विद्यार्थी हमें गुरूजी कहते और मानते हैं। हम स्वयं विद्यार्थियों को चुनौती का सामना करने के लिए प्रेरित करते हैं। अतः हमें भी शाला को शाला बनाने की चुनौती, शाला को शासन के उद्देश्य के अनुरूप चलाने की चुनौती स्वीकार करना होगी। इसी विचार मंथन में शिक्षकों को अपने कर्तव्य कर्म का बोध हुआ और वे अपने दायित्व निर्वहन के लिए अभिपे्ररित हो गए। उन्हांेने शाला के उन्नयन के लिए एक कार्ययोजना बनाई और उस पर क्रियान्वयन करना प्रारंभ कर दिया। कार्ययोजना के केन्द्र में उन्होंने इस बिन्दु को रखा कि शाला आने में बच्चों के मन में उमंग हो, रूचि हो तथा अभिभावक की भी बच्चों को शाला भेजने में सकारात्मक सहभागिता हो।
शिक्षकों ने अपनी कार्ययोजना से अभिभावकों को अवगत कराया। परस्पर सहमति से उन्होंने सबसे पहले बच्चों को शाला आने में रूझान उत्पन्न करने के लिए उपहार योजना शुरू की। सभी विद्यार्थियों को गणवेश दिए, शीतकाल के लिए ऊनी कपड़े दिए। गणवेश और ऊनी वस्त्र पाकर विद्यार्थियों के चेहरे पर खुशी के भाव आ गए और वह शाला ने में रूचि लेने लगे। शाला आने के बाद विद्यार्थी शाला आने में रूकें, इसके लिए शिक्षकों ने शाला को खेल के मैदान में भी बदला और खेल-खेल में पढ़ाई को अंजाम देने लगे। खेल के मैदान के साथ कक्षाओं में भी बच्चों का मन लगे इसके लिए टाट-पट्टी की व्यवस्था की गयी, पुराने फर्नीचर को नया रूप दिया गया। विद्यार्थियों को पढ़ने और लिखने में सुविधा हो इसके लिए पुराने फर्नीचर से छोटी-छोटी डेस्क बनाई गयी। अध्ययन कक्ष की दीवारों पर गिनती, वर्णमाला और प्रेरक चित्र बनाए गए, नृत्य और गीत को पढाई में शामिल किया गया। विद्यार्थी स्वप्रेरणा से लेखन में रूचि लें, इस उद्देश्य से दीवारों पर छोटे-छोटे ग्रीन बोर्ड बनवाए गए। विद्या की देवी माॅं सरस्वती का मंदिर स्थापित कर प्रतिदिन प्रार्थना से शाला की शुरूआत प्रारंभ की गयी। शिक्षकों और अभिभावकों की संयुक्त पहल रंग लायी। सकारात्मक परिणाम सामने आने लगे। साफ, स्वच्छ शिक्षा कक्ष और शाला प्रांगण, शाला प्रांगण में लहराते फूलों के पौधे, टाट-पट्टी, ग्रीन बोर्ड और प्यार भरा मार्गदर्शन पाकर जहां विद्यार्थी स्व-अनुशासन से पढ़ने में रूचि लेने लगे वहीं दूसरी ओर शाला का वातावरण भी शिक्षामय हो गया।
प्रगतिगामी पग यहीं पर नही रूके, दूसरा सोपान चालू हुआ। विद्यार्थियों का युक्तियुक्त तरीके से सामाजीकरण हो, वह परस्पर सीखें इस उद्देश्य से समूह में पढाई कराना शुरू की। दल बनाकर सामान्य ज्ञान और अंग्रेजी विषय पर प्रश्नोत्तरी करवाना शुरू किया गया। प्रतियोगी एवं स्वस्थ्य वातावरण देने के लिए विभिन्न विषयों पर समूह चर्चा करवाना शुरू किया। विद्यार्थी कल्पनाशील और विचारवान बने इसके लिए ग्रीन बोर्ड के साथ विभिन्न चित्र अंकित कर विद्यार्थी को उन चित्रों को आधार बनाकर कविता और कहानी लिखने के लिए प्रेरित करना शुरू किया। विद्यार्थीगण आत्म विश्वासी हो, वह अपने विचार सबके सामने रख सकें, दूसरे के विचारों को धैर्यपूर्वक सुन सकें, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बाल सभा का गठन किया गया। शाला में एक पुस्तकालय की स्थापना की गयी और उसके माध्यम से प्रेरक साहित्य उपलब्ध कराया गया। बाल सभा के माध्यम से राष्ट्रीय पर्व और अन्य प्रसंगों पर सभा आयोजित करना प्रारंभ की गयी। बाल सभा का संचालन भी बच्चों से कराना शुरू किया। परिणाम हुआ कि हीरो की नगरी पन्ना में ग्राम तारा की शाला भी हीरो के समान चमकने लगी।
शाला की प्रगति की दस्तां से रूबरू होने के लिए एक नजर पूर्व पर डालना भी उचित है। शैक्षणिक सत्र 2015-16 में छात्र संख्या केवल 19 थी एवं 5 छात्र नवप्रवेशी मिले। इस तरह कुल छात्र संख्या 24 हो गयी जिनमें से 9 अनुसूचित जाति एवं 4 अनुसूचित जनजाति के छात्र थे। उसके बाद 3 छात्रों के उत्तीर्ण होकर विद्यालय छोडने के बाद वर्ष 2016-17 में 21 छात्र संख्या बची। इसी वर्ष 18 नये छात्रों ने प्रवेश लिया जिनमें से 9 छात्र निजी विद्यालयों से आए थे। अब छात्रों की संख्या 39 हो गयी थी। इनमें से 20 अनुसूचित जाति एवं 4 अनुसूचित जनजाति के छात्र थे। शैक्षणिक सत्र 2017-18 में 12 छात्र उत्तीर्ण होकर बाहर होने के बाद छात्र संख्या 27 हो गयी थी। इस वर्ष 19 नवप्रवेशी बच्चों ने प्रवेश लिया। जिनमें से 4 छात्र निजी विद्यालयों से आए। इस तरह वर्तमान में कुल छात्र संख्या 46 है। जिनमें से 15 अनुसूचित जाति के छात्र है।
उपरोक्त आंकडे स्वयं इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि कर्तव्य निष्ठा से इस शाला में बचपन संवर रहा है। निःसंदेह यह अनूठा स्कूल है। इसकी किसी स्कूल से कोई तुलना नहीं है। यह दो शिक्षकों के सद्प्रयास की सफलता की कहानी है, जिससे पाठशाला की छवि इतनी निखर गयी कि सम्पन्न घरों के बच्चे भी प्रायवेट स्कूल छोड़ कर इस शाला में प्रवेश ले रहे हैं। सच भी यही है कि निरंतर और सतत प्रयास ही सफलता के मूल आधार है।
समाचार क्रमांक 314-900
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